
दोनों गठबंधनों को चेताने वाला साबित हो सकता है यह चुनाव


महेश कुमार सिन्हा
पटना : बिहार का चुनावी परिदृश्य साफ हो गया है। यहां 1990 के बाद किसी एक दल को बहुमत नही मिला। कोई दल बिहार में अकेले लड़ कर सरकार बनाने की स्थिति में भी नही है। यहां मुख्य मुकाबला पार्टियों नहीं,गठबंधनों के बीच है। पिछले पांच विधानसभा चुनावों से मुख्य लड़ाई राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और महागठबंधन के बीच होती रही है।
इस बार भी मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच ही है। लेकिन इस बार का चुनाव रणनीतिक मामलों को लेकर दोनों गठबंधनों को चेताने वाला साबित हो सकता है। दोनों में कांटे की लड़ाई है। 2020 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के बीच वोटों की भागीदारी का अंतर बहुत कम था। दोनों को करीब 37 फीसदी वोट मिले थे।
राजद 75 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। भाजपा 74 सीटें प्राप्त कर दूसरे नंबर पर थी। जदयू 43 सीटों के साथ तीसरे और कांग्रेस 19 सीटें जीत कर चौथे स्थान पर रही थी। राजद और कांग्रेस महागठबंधन के ,जबकि भाजपा और जदयू एनडीए के प्रमुख घटक दल हैं। कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के कारण पिछली बार महागठबंधन सरकार बनाने से चूक गई थी।
लेकिन इस बार सरकार की,खासकर महिलाओं और युवाओं के लिए बड़ी घोषणाओं के बावजूद माहौल महागठबंधन के पक्ष में बनता दिख रहा था। लेकिन दो रणनीतिक गलतियों के कारण महागठबंधन को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। उसने पहली गलती घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे में बहुत देर कर की। इससे बागियों को अपनी ही पार्टी के उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़ने का मौका मिल गया।
दूसरी यह कि राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा के बाद सीटों को लेकर खींचतान की वजह से कांग्रेस और राजद के रिश्ते में खटास आ गई। राहुल गांधी से रिश्ते बिगड़ने के बाद तेजस्वी यादव अकेले चुनाव प्रचार में निकल गए। हालांकि ,कांग्रेस ने लंबी खींचतान के बाद आखिरकार तेजस्वी यादव को महागठबंधन का सीएम फेस घोषित कर नुकसान की भरपाई कर दी। इससे महागठबंधन में नई जान आ गई और देर से ही सही,राहुल गांधी चुनाव प्रचार में उतर गए।
इस बीच पार्टी के आंतरिक सर्वेक्षणों से चिंतित भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार में आक्रामक प्रचार शुरु कर अपनी फौज मैदान में उतार दी। पहले चरण के मतदान के लिए प्रचार खत्म होने के पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बिहार आने से एनडीए के चुनाव अभियान ने और तेजी पकड़ ली ।
महागठबंधन की ओर से तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद भाजपा असमंजस में पड़ गई। उस पर एनडीए का सीएम फेस घोषित करने के लिए दवाब बढ़ने लगा। मजबूरन भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह को इस बात की पुष्टि करनी पड़ी कि अगर एनडीए फिर सत्ता में आता है, तो नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होंगे।
दरअसल नीतीश कुमार पिछले ढाई दशक से गठबंधन की राजनीति की धूरी बने हुए हैं। वे जिस गठबंधन के साथ रहते हैं,जीत उसी की होती रही है। उनके पास अपना एक सौलिड वोट बैंक है।यह चुनाव नीतीश कुमार का अंतिम चुनाव हो सकता है।शायद इसीलिए भाजपा और चिराग पासवान ने मुख्यमंत्री पद की अपनी महत्वाकांक्षा को फिलहाल दरकिनार कर दिया है।
यह सही है पिछले कई विधानसभा चुनावों से मुख्य मुकाबला दोनों गठबंधनों के बीच ही होता रहा है।लेकिन 2020 के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि एनडीए और महागठबंधन से अलग हटकर भी बड़ी संख्या में मतदाताओं ने वोट डाले हैं। इसके कारण राज्य की 29 सीटों पर दोनों गठबंधनों में किसी एक को तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा था। इन 29 सीटों पर पहले और दूसरे स्थान पर गठबंधनों से इतर किसी और पार्टी के या निर्दलीय उम्मीदवार थे। उस चुनाव में एनडीए के 19 और महागठबंधन के 10 उम्मीदवार तीसरे स्थान पर थे। 2020 के चुनाव में 15 सीटों पर नोटा तीसरे स्थान पर रहा था।
पिछले चुनाव से इस बार के विधान सभा चुनाव में फर्क यह यह है कि मतदाताओं को जनसुराज पार्टी के रूप में एक नया विकल्प मिला है। इसके संस्थापक प्रशांत किशोर ने बदलाव के नाम पर पूरे प्रदेश में धुंआधार प्रचार किया है। उन्हे कितनी कामयाबी मिलती है,यह तो 14 नवंबर को पता चलेगा। लेकिन वह दोनों गठबंधनों मे सेंधमारी करते नजर आ रहे हैं।


