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मैं सूरज का बेटा हूं, सूरज को पूजता हूं

by Dayanand Roy

प्रभात गोपाल झा

तालाब या जलाशय शांति का प्रतीक होता है। यह बेचैन मन को बांधता है। यूं ही ऋषि मुनियों के आश्रम जलाशयों के किनारे नहीं होते। दुनिया के परमपवित्र तप का पर्व छठ जलाशय की पहचान को अमर कर देता है। यह सामूहिक जुटान का पर्व है। बिहार और झारखंड में परिवार के सदस्य हर वर्ष घाट पर छठ में संध्या अर्घ्य में जरूर खड़े होते हैं।

छठ कई परिवारों के लिए मिलन का उत्सव है। इस समय लोग सारा भेदभाव भूल कर अपने घर आते हैं। सिर्फ अपनों के साथ छठ मनाने के लिए। पूर्वी भारत में यह पर्व सीधे आत्मा से जुड़ा है। हम जिस इलाके में रहते थे, वहां के तालाब में छठ बचपन की स्मृति से जुड़ा है। वह तालाब खेतों की पट्टी के बीच में था। तब शहरी निर्माण की इतनी आपाधापी नहीं थी।

अब ईश्वरीय संयोग से हमारे वर्तमान घर के पास ही जलाशय है, जहां हम सब सामूहिक रूप से इकट्ठा होकर भगवान भास्कर को नमन करते हैं। मेरे लिए छठ पर्व घाट पर परिवार के साथ सामूहिक पूजा का उत्सव है। भगवान भास्कर के समक्ष खुद को समर्पित करने का पर्व।

मेरी स्मृति में छठ घाट परिवार और बच्चों की आशीर्वादी से जुड़ा है। मौके पर मैं घाट पर मन की पूजा अर्पित करता हूं। निर्जला तप करते व्रतियों के दर्शन मात्र से मन और आत्मा तृप्त हो जाती है। जल में डूबे व्रतियों का तप देखना अनोखा अनुभव है।

कई लोग इसका वैज्ञानिक लाभ गिनाते हैं। लेकिन मेरे लिए यह ज़िन्दगी की तस्वीरों का जीवंत दस्तावेज है। किसी भी अन्य पर्व में लोग परिवार के इतने निकट नहीं होते। यूं ही देश के महानगर खाली नहीं हो जाते। सभी मात्र घाट पर भगवान भास्कर को नमन करने के लिए हजारों किमी की यात्रा करते हैं।

छठ सिर्फ सांस्कृतिक उत्सव ही नहीं है। यह जल और जीवन को पवित्र रहने का भी संदेश देता है। रांची के तालाबों को पिछली सरकारों में मिट्टी कटाव के सहारे नवजीवन मिला था। आज ये तालाब एकदम अपने नए रूप में दिखते हैं। घाटों को अब सजाने का सिलसिला शुरू होगा। इस बार भी सब पवित्र भाव लिए छठ के लिए तैयार हैं। भगवान भास्कर से विश्व और परिवार के कल्याण की कामना करने के लिए।

मैं सूरज का बेटा हूं

सूरज को पूजता हूं

कोई नहीं पूजता है पश्चिम में सूरज

कोई नहीं मनाता पश्चिम में छठ

रात के लिफ़ाफ़े में

पूरब की डाक से आ रहा है चांद

शायद मां ने भेजा है चावल का पूआ

जल्दी ही पहुंचेगी सुबह की ट्रेन

परसों का चांद कुछ ज़्यादा ही कटा था

परसों मूस ने ज़्यादा कुतर खाया होगा

कल का चांद थोड़ा कम नुचा था

मूस को कल हाथ कम लगा होगा

आज का चांद गोल सुडौल है

जानती है माँ

मैं अगहन में लौटूंगा

नोट- रामाज्ञा शशिधर की कविता के बोल हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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